सबको खुश करने की कवायद में नाराज न कर दे ये बजट

वित्त मंत्री अरुण जेटली का पहला पूर्ण बजट इस बात का प्रतीक है कि कैसे आशावादिता वास्तविकता पर हावी हो सकती है। दरअसल, उन्होंने अपनी सरकार के आलोचकों को जवाब देने की कोशिश की है। इसके लिए उन्होंने गरीब, मध्य वर्ग, कार्पोरेट क्षेत्र, किसान, छोटे व्यापारी, युवा और बुजुर्ग सभी को कुछ न कुछ देने का वायदा किया है। मगर सबको खुश करने की कवायद के साथ दिक्कत यह है कि अंत में मुमकिन है कि कोई भी उनसे खुश न हो। इस आशावाद की मूल वजह उनकी यह सोच रही कि आने वाले वित्तीय वर्ष में महंगाई दर तकरीबन तीन से 3.5 फीसदी रहेगी, जो कि फिलहाल पांच फीसदी के करीब है। एक अप्रैल से शुरू हो रहे वित्तीय वर्ष के दौरान जीडीपी की सांकेतिक विकास दर 11.5 प्रतिशत अनु‌मानित की गई है, जबकि महंगाई दर को समायोजित करने के बाद जीडीपी की वास्तविक विकास दर आठ से 8.5 प्रतिशत के बीच अनुमानित की गई।

असल में, बजट के अपने गणित को तैयार करते वक्त ऐसी अस्पष्ट धारणा रखने के पीछे उनकी यह सोच थी कि आगामी वर्ष में कच्चे तेल की कीमतों में कोई खास बढ़ोतरी नहीं होगी। ऐसी उम्मीद रखना, वाकई चुनौतीपूर्ण है, खासकर तब जबकि भाजपा के भीतर के कुछ लोगों समेत काफी लोगों की नजर में यह अव्यवहारिक है। सच तो यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्‍चे तेल के मूल्यों में आई गिरावट ही महंगाई दर में कमी की बड़ी वजह रही है। किस्मत अब तक सरकार के साथ रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री दोनों को आगे भी ऐसी ही उम्मीद होगी।

बीते शुक्रवार को लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मनरेगा की खिल्ली उड़ाई। इसके एक दिन बाद उनके वित्त मंत्री मनरेगा के तहत आवंटन में कुछ हद तक बढ़ोतरी करते हैं, साथ ही, यह भी कहते हैं कि ज्यादा राजस्व मिलने पर इसमें 5 हजार करोड़ रुपये का आवंटन और किया जा सकता है। वित्त मंत्री मनरेगा को लेकर अपनी प्रतिबद्धता भी जाहिर करते हैं, और उसकी गुणवत्ता और प्रभाव पर ज्यादा फोकस करने की भी बात करते हैं। वहीं, आर्थिक सर्वे मनरेगा को बेहतर ढंग से लक्षित योजना बताते हुए छोटे किसानों और कृषि श्रमिकों के प्रति समर्थन को बढ़ाने की बात भी करता है। इसमें यह भी कहा गया है कि ग्रामीण आय को बढ़ाते हुए ग्रामीण सड़कों, सूक्ष्म सिंचाई और जल प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में इस कार्यक्रम का उपयोग करना एक चुनौती है। ऐसे में सवाल उठता है कि किसका भरोसा किया जाए, प्रधानमंत्री मोदी, वित्त मंत्री जेटली या फिर सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ अरविंद सुब्रमण्यन का?

दरअसल, भाजपा के राजनीतिक विरोधी मोदी सरकार की नीतियों पर बड़े व्यापारियों और समाज के समृद्ध तबके की ओर, जिस पर अक्सर कर चोरी के आरोप भी लगते रहते हैं, झुकाव रखने के आरोप लगते रहे हैं। सरकार की इस नकारात्मक छवि को तोड़ने के लिए ही बजट में बड़ी-बड़ी बातें की गई हैं। देश के बेहद जटिल और पेचीदा कर ढांचे को तार्किक बनाने का वायदा करने के साथ वित्त मंत्री आने वाले वर्षों में कार्पोरेट निकायों पर से करों में कमी की योजना का भी उल्लेख करते हैं।

बजट के अनुसार प्रत्यक्ष करों में प्रस्तावित बदलावों से राजस्व को होने वाला नुकसान 8,135 करोड़ रुपये होगा। मगर अप्रत्यक्ष करों को लेकर जो प्रस्ताव हैं, उनके जरिये 23,383 करोड़ रुपये के अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति की भी बात बजट करता है। गौरतलब है कि प्रत्यक्ष कर प्रगतिशील हैं, जिसका मतलब है कि गरीबों की तुलना में अमीर ज्यादा कर अदा करेंगे। इसके उलट अप्रत्यक्ष कर प्रतिगामी हैं, यानी गरीबों और अमीरों पर बराबर कर लगेगा। कुल मिलाकर कहें तो इस बजट में जेटली महोदय कुछ ज्यादा ही आशावादी होते दिखे हैं। उनकी नजर में यही उनका फर्ज है। मगर सच्चाई तो 12 महीने के बाद ही सामने आएगी।

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