अपने पुरस्कार लौटाने का लेखकों, अकादमिशियनों, फ़िल्म निर्माताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों के सामूहिक फैसले को भले ही बीजेपी और संघ की ओर से ‘राजनीति से प्रेरित’ और ‘बौद्धिक असहिष्णुता’ कह कर खारिज किया जाय लेकिन ये विरोध अब अलग रुख अख़्तियार करने लगे हैं और सरकार को उसके मर्म पर चोट कर रहे हैं जहां उसे दर्द होता है. और यह दर्द वाकई बहुत तीखा है, यानी अर्थव्यवस्था पर चोट. सबसे बुरी बात तो ये है कि अग्रणी कार्पोरेट बिजनेसमैन सार्वजनिक रूप से सरकार की लानत मलानत कर रहे हैं, लेकिन आर्थिक
भारत की दूरसंचार क्रांति का एक नकारात्मक पहलू भी है. मोबाइल संचार के लिए हवा की तरंगों (एयर वेव्स) के आवंटन और कीमत को लेकर एक के बाद एक घोटालों के बाद अब बार-बार कॉल ड्रॉप के रूप में ख़राब सेवा से नए विवाद शुरू हो गए हैं. आज देश के ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों में इंसानों से ज़्यादा फ़ोन हैं. 125 करोड़ लोगों के देश में 100 करोड़ सिम कार्ड हैं, 70 करोड़ मोबाइल फ़ोन हैं जिनमें से 25 करोड़ 'स्मार्ट' फ़ोन हैं. दिक्कत फ़ोन में नहीं बल्कि मोबाइल सेवा में है. ऐसा एक से ज़्यादा बार हो रहा है कि यूज़र की
“आई, मी, माईसेल्फ...सब बोरिंग है। अस एंड वी...इन्ट्रस्टिंग है... इंटरनेट है तो फ्रेंडशिप है... फ्रेंडशिप है तो शेयरिंग है... जो मेरा है वो तेरा... जो तेरा है वो मेरा है...” एयरटेल के इस विज्ञापन को आपने टीवी पर जरूर देखा होगा। इस विज्ञापन में इंटरनेट की दुनियां को बहुत ही उदार बताया गया है। इंटरनेट की दुनियां तक तो ऐसा होना अच्छा लगता है लेकिन जब ऐसा सरकारी संपत्ति को लेकर कहा जाने लगे तो आप क्या कहेंगे? दूरसंचार विभाग और भारती एयरटेल के बीच जो कुछ हुआ वह इस विज्ञापन के बोल को सार्थक करता प्रतीत
यह देखना आश्चर्यजनक लगता है कि ऐतिहासिक जनसमर्थन से सत्ता में आई मोदी सरकार कितनी तेजी से अपना आधार गंवाती जा रही है। महज 15 माह पहले मई 2014 में 31.5 प्रतिशत पॉपुलर वोट के साथ यह सरकार सत्ता में आई थी। इसके बावजूद कॉर्पोरेट जगत की कद्दावर हस्तियों, दक्षिणपंथी चिंतकों, स्तंभकारों, बुद्धिजीवियों, जिनमें से कइयों ने मोदी सरकार में भरोसा जताया था और गर्मजोशी से उसका स्वागत किया था, आज उनमें ही जैसे सरकार की कार्यप्रणाली और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्वक्षमता की आलोचना करने की होड़ लगी हुई
यह तो खैर पहले से ही अनुमान लगाया जा रहा था कि संसद का मानसून सत्र न केवल हंगामाखेज रहेगा, बल्कि वह पूरी तरह से 'धुल" भी सकता है। अब जब ऐसा वस्तुत: होता नजर आ रहा है तो यह किसी के लिए भी अप्रत्याशित नहीं है। सवाल यही था कि क्या इसके बाद मोदी सरकार अपनी नीतियों में बुनियादी बदलाव लाने को मजबूर होगी। संसद में विधायी कार्य ठप हो जाने से सरकार के लिए मतदाताओं से किए गए वादों को पूरा करना निरंतर मुश्किल होता जा रहा है और इससे उस पर राजनीतिक दबाव बढ़ता जा रहा है। उसके सामने बिहार में होने जा रहे
“जहां तक यूनान के मौजूदा संकट का सवाल है, इससे जुड़े मजाक की भी अपनी-अपनी विचारधाराएं हैं। एक प्रचलित चुटकुले का पूंजीवादी संस्करण इस प्रकार है। डच होने की पहचान यह है कि एक रेस्तरां में एक टेबल पर साथ में खाना खाए लोग मिलकर बिल का भुगतान करते हैं जबकि ग्रीक होने का मतलब है खाना खा लेने और शराब पी लेने के बाद जब सभी उठते हैं तो पता चलता है कि बिल देने के लिए किसी के पास पैसे नहीं हैं। इसी लतीफे का समाजवादी संस्करण यह है कि जिन लोगों ने खाने का आर्डर दिया है उन्हें पता चलता है कि उनका खाना रेस्
क्या 1930 की महामंदी के बाद दुनिया एक और महामंदी की ओर बढ़ रही है? क्या हम यह मान लें कि वर्ष 2008 की मंदी इस महामंदी का शुरुआती दौर भर थी? दुनिया ग्रीस त्रासदी पर टकटकी लगाए हुए है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन कहते हैं कि 1930 जैसी महामंदी के हालात फिर से निर्मित हो सकते हैं। अलबत्ता इसके एक दिन बाद ही आरबीआई द्वारा सफाई दी जाती है कि गवर्नर का आशय यह नहीं था कि हाल-फिलहाल दुनिया पर किसी तरह की महामंदी का खतरा मंडरा रहा है। आरबीआई ने मीडिया पर राजन के बयान को संदर्भ से काटकर
आठ मई, 2015 को भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग ने संसद में एक रिपोर्ट रखी। इस रिपोर्ट में बताया गया कि दूरसंचार विभाग ने मुकेश अंबानी की कंपनी 'रिलायंस जियो’ को 'ब्रॉड बैंड वायरलेस एक्सेस स्पेक्ट्रम’ के तहत कॉल करने की सुविधा देकर 'अनुचित लाभ’ पहुंचाया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी को जिस समय इंटरनेट सेवा प्रदाता का लाइसेंस दिया गया था उस समय कॉलिंग की सुविधा नहीं दी गई थी। रिपोर्ट कहती है कि रिलांयस जियो को एक एकीकृत लाइसेंस चुपके से दे दिया गया जिसमें इंटरनेट सेवा प्रदाता होने
मोदी सरकार का भू-अधिग्रहण अध्यादेश 5 अप्रैल को समाप्त हो रहा है और सरकार ने पुन: अध्यादेश लाने का निर्णय किया है। यह एक बहुत बड़ा राजनीतिक जुआ है। चूंकि राजग के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, इसलिए पूरी संभावना है कि जब यह अध्यादेश विधेयक की शक्ल में वहां जाएगा, तो निरस्त हो जाएगा। ऐसे में सरकार के पास संसद का संयुक्त सत्र बुलाने के सिवा कोई और चारा नहीं रह जाएगा। लेकिन क्या सच में सरकार के पास कोई और विकल्प नहीं है? नहीं, सरकार के पास एक और विकल्प है। और वो यह कि इस विधेयक पर छिड़े विवाद को अपनी
मोदी सरकार का भू-अधिग्रहण अध्यादेश 5 अप्रैल को समाप्त हो रहा है और सरकार ने पुन: अध्यादेश लाने का निर्णय किया है। यह एक बहुत बड़ा राजनीतिक जुआ है। चूंकि राजग के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, इसलिए पूरी संभावना है कि जब यह अध्यादेश विधेयक की शक्ल में वहां जाएगा, तो निरस्त हो जाएगा। ऐसे में सरकार के पास संसद का संयुक्त सत्र बुलाने के सिवा कोई और चारा नहीं रह जाएगा। लेकिन क्या सच में सरकार के पास कोई और विकल्प नहीं है? नहीं, सरकार के पास एक और विकल्प है। और वो यह कि इस विधेयक पर छिड़े विवाद को अपनी