सोशल_मीडिया : क्या फेसबुक सत्ताधारियों के साथ है?

ये आरोप अक्सर लगते हैं कि नरेंद्र मोदी के समर्थक ऑनलाइन माध्यमों के जरिये गलत सूचनाएं फैलाते हैं। उन पर यह भी आरोप है कि कई बार वे यह काम कंटेंट मार्केटिंग कंपनियों के साथ मिलकर करते हैं।

दूसरी तरफ कुछ मीडिया संस्थानों और पत्रकारों की यह शिकायत है कि अगर वे सत्ताधारी पार्टी या केंद्र की मौजूदा सरकार की आलोचना करने वाली खबरें करते हैं तो उन्हें फेसबुक जानबूझकर दरकिनार करता है। इनका कहना है कि कई बार तो फेसबुक सेंसर यानी काट-छांट का काम भी करता है। इसे कुछ उदाहरणों के जरिए समझा जा सकता है।

दिल्ली प्रेस की एक प्रतिष्ठित पत्रिका है कारवां। इसकी वेबसाइट भी लोकप्रिय है। 10 अगस्त, 2018 को कारवां ने फेसबुक पर एक ऐसी खबर बूस्ट करने की कोशिश की जिसमें भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह पर सवाल उठाए गए थे। फेसबुक पर कोई भी खबर या पोस्ट बूस्ट करने का मतलब यह होता है कि आप फेसबुक को अपने लक्षित पाठक वर्ग तक पहुंचने के लिए पैसे देते हैं और फेसबुक उन लोगों को आपकी खबर का लिंक दिखाने लगता है। बूस्ट के कारोबार के जरिये फेसबुक कंपनी काफी पैसे कमाती है।

कारवां की अमित शाह से संबंधित स्टोरी में यह दावा किया गया था कि शाह ने चुनाव आयोग के सामने जो हलफनामा दिया है उसमें अपनी संपत्तियों और देनदारियों से संबंधित जानकारियां गलत हैं। कारवां इस खबर को फेसबुक पर बूस्ट करना चाह रहा था।

फेसबुक पर कोई भी स्टोरी आप तब ही बूस्ट कर सकते हैं जब फेसबुक इसकी अनुमति दे। कारवां की इस खबर के लिए फेसबुक ने 11 दिनों के बाद मंजूरी दी। तब तक इस खबर का महत्व कम हो चुका था क्योंकि तब तक खबरों का चक्र आगेबढ़ गया था।

इस बारे में जब हमने कारवां के कार्यकारी संपादक विनोद के. जोस से जानना चाहा तो उन्होंने ईमेल के जरिए भेजे जवाब में बताया, ‘हमारे लिए यह हैरान करने वाली घटना थी। 10 अगस्त को हमारी विशेष रिपोर्ट को फेसबुक ने बूस्ट नहीं करने दिया। हमारी इस खास खबर में यह बताया गया था कि कैसे अमित शाह ने चुनावी हलफनामे में अपनी कर्ज की देनदारियों को छुपाया है। फेसबुक पर कारवां का वेरिफाइड अकाउंट है। पहले भी हम फेसबुक के साथ मिलकर कुछ सार्वजनिक कार्यक्रम कर चुके हैं।’

जोस ने बताया कि उनकी डिजिटल मार्केटिंग टीम कई दिनों तक फेसबुक के जवाब का इंतजार करती रही। लेकिन फेसबुक की ओर से कोई जवाब नहीं आया।

जोस कहते हैं, ‘इसके बाद हमारे मन में संदेह पैदा हुआ। हमने अपने एक रिपोर्टर को इस बारे में पता लगाने के लिए कहा। हमारे रिपोर्टर ने भारत में फेसबुक के जनसंपर्क के प्रभारी अधिकारी से संपर्क किया। इसके बावजूद कोई जवाब नहीं मिला। वेबसाइट पर खबर प्रकाशित होने के 11 दिनों के बाद फेसबुक ने खबर बूस्ट करने की मंजूरी दी। तब तक इस खबर की असर डालने की क्षमता खत्म हो गई थी।’

21 अगस्त को कारवां को ईमेल पर फेसबुक का ये जवाब मिला, ‘हमने आपके विज्ञापन की फिर से समीक्षा की और यह पाया है कि ये हमारी नीतियों के अनुरूप है। आपके विज्ञापन को अनुमति दी जाती है। अब आपका विज्ञापन प्रकाशित कर दिया गया है और जल्दी ही लोगों तक पहुंचना शुरू हो जाएगा। आप इसके परिणाम फेसबुक एड्स मैसेंजर में देख सकते हैं।’

जोस इस बात पर हैरानी जताते हैं कि अगर 21 अगस्त को फेसबुक को कारवां की खबर में कुछ गलत नहीं लगा तो फिर फेसबुक ने 11 दिनों तक इस खबर को क्यों रोके रखा।

कारवां के रिपोर्टर तुषार धारा ने इस मसले को अमेरिका में फेसबुक के मुख्यालय के समक्ष भी ईमेल के जरिए उठाया। लेकिन दस दिनों तक उनके सवालों का जवाब फेसबुक की ओर से नहीं दिया गया।

व्यंग्य भरे लहजे में जोस कहते हैं, ‘फेसबुक को यह तय करना होगा कि उसे भारतीय इतिहास में किस तरह दर्ज होना है। उसे यह तय करना होगा कि लोकतंत्र में सूचनाओं के बगैर रोक-टोक के प्रवाह को बढ़ावा देने वाले चैनल के तौर पर लोग उसे याद रखें या फिर सूचनाओं की पहरेदारी करने वाले और इन्हें रोकने वाले माध्यम के रूप में।’

वे बताते हैं, ‘अमेरिका में फेसबुक ने 20 लोगों को इस काम पर लगा रखा था कि वे वहां की मध्यावधि चुनाव के दौरान फेसबुक पर आने वाली सामग्री पर नजर रखें। भारत अमेरिका से पांच गुना बड़ा लोकतंत्र है। जब आने वाले दिनों में भारत में चुनाव होंगे तो क्या फेसबुक भारत में 100 लोगों की टीम इस निगरानी के काम के लिए लगाएगा? दो अलग-अलग लोकतांत्रिक देशों के लिए कंपनियों के दो अलग-अलग मानक नहीं होने चाहिए।’

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